Saturday, November 19, 2011

पिछले आठ माह से भारतीय क्रिकेट प्रशंसक सांसें थामकर उस क्षण की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जब क्रिकेट के भगवान् सचिन तेंडुलकर अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में अपना सौवां शतक पूरा करेंगे। लेकिन इस दौरान एक खिलाडी राहुल द्रविड़ के उपलब्धियों पर किसी ने गौर नहीं किया . 
बेंगलुरू के इस 38 वर्षीय खिलाड़ी ने अपने अप्रतिम कॅरियर की सांझ में यह दिखा दिया है कि सच्ची उत्कृष्टता को आत्मप्रचार के लिए किसी चकाचौंध भरे प्रचार की जरूरत नहीं होती, उसे केवल अपने कौशल के प्रति अडिग रूप से प्रतिबद्ध रहना होता है। चुपचाप अपना काम करने वाले उन बहुसंख्य लोगों के लिए भी द्रविड़ एक प्रेरणा सिद्ध हुए हैं, जो अपने नायकों को शोमैन के स्थान पर परफॉर्मर के रूप में देखना चाहते हैं।
प्रचार की चकाचौंध में होकर भी उससे दूरी बनाए रखना आसान नहीं हो सकता, लेकिन इसके बावजूद द्रविड़ ने जीवन के उतार-चढ़ावों का सामना धीरज और संभवत: अपने समकालीनों की तुलना में अधिक मर्यादा के साथ किया है। वर्ष 1996 का लॉर्डस टेस्ट याद करें, जो कि राहुल द्रविड़ का पदार्पण मैच था। उसी मैच से सौरव गांगुली ने भी अपने टेस्ट कॅरियर की शुरुआत की थी। लेकिन भारतीय क्रिकेट के पुनरुत्थान के ये दो सहभागी जीवन और खेल के प्रति अपने रवैये में एक-दूसरे से बेहद विपरीत सिद्ध हुए।  गांगुली ‘प्रिंस ऑफ कोलकाता’ थे, मानो शासन करना ही उनकी नियति हो। लेकिन इसके विपरीत द्रविड़ ने आजीवन अपने लिए एक लगभग नीरस उपाधि ‘द वॉल’ का निर्वाह किया।


सौरव गांगुली जज्बाती व जोशीले थे। लॉर्डस में जब उन्होंने अपनी कमीज उतारकर लहराई तो वह आधुनिक भारतीय क्रिकेट का एक महत्वपूर्ण क्षण था। लेकिन हम कल्पना भी नहीं कर सकते कि द्रविड़ कभी इस तरह सार्वजनिक रूप से अपने शरीर सौष्ठव का प्रदर्शन करेंगे। 
जब गांगुली को टीम से बाहर कर दिया तो पूरा कोलकाता सड़क पर उतर आया था। लेकिन यदि द्रविड़ को टीम से निकाल बाहर कर दिया जाए तो लगता नहीं कि बेंगलुरू के एमजी रोड के ट्रैफिक में तनिक भी खलल पड़ेगा। शायद, गांगुली के उत्साह ने ही उन्हें एक बेहतर कप्तान बनाया, लेकिन अब यह साफ हो गया है कि द्रविड़ की दृढ़ता कहीं अधिक दीर्घजीवी थी।

द्रविड़ के समकालीनों में केवल सचिन तेंडुलकर रनों और शतकों के मामले में उनसे आगे खड़े हैं। शायद तेंडुलकर युग में खेलने का यही अर्थ था कि द्रविड़ जैसे बल्लेबाज को कभी उतनी सराहना नहीं मिल पाएगी, जिसके वे योग्य थे। ब्रैडमैन के दौर में भी कई महान बल्लेबाज सामने आए थे, लेकिन सर डॉन का आभामंडल ही कुछ ऐसा था कि इतिहास ने उन्हें भुला दिया। तेंडुलकर के आभामंडल का भी कुछ ऐसा ही असर है। फिर भी यदि तेंडुलकर क्रिकेट के कलाकार हैं तो द्रविड़ क्रिकेट के कारीगर हैं। अपने कौशल को निरंतर निखारते हुए आज वे उस मुकाम पर आ गए हैं कि उन्हें मुंबई के जीनियस बल्लेबाज के समकक्ष रखा जा सकता है।
उदाहरण के तौर पर यदि हम जिम्बाब्वे और बांग्लादेश को छोड़ दें तो विदेशी मैदानों पर द्रविड़ का टेस्ट औसत सचिन से भी बेहतर है। विदेशी धरती पर भारत की जीत में भी द्रविड़ का योगदान अधिक रहा है। उल्लेखनीय है कि द्रविड़ के 36 में से 32 शतक ऐसे हैं, जिनके कारण या तो भारत ने मैच जीता या वह मैच बचाने में कामयाब रहा। यह तथ्य द्रविड़ को एक वास्तविक मैच विजेता के रूप में स्थापित करता है। उनके लगभग १३ हजार टेस्ट रनों के साथ ही यदि वनडे के १क् हजार से अधिक रनों और 200 से अधिक टेस्ट कैचों को भी जोड़ें तो हम पाएंगे कि क्रिकेट इतिहास के सर्वकालिक महानतम खिलाड़ियों की पांत में राहुल द्रविड़ का स्थान सुरक्षित है।

लेकिन रनों से भी ज्यादा जो चीज मायने रखती है, वह है व्यक्तित्व की दृढ़ता। इतने लंबे कॅरियर के बावजूद द्रविड़ का नाम केवल एक विवाद से जुड़ा : जब उन्होंने एक कार्यवाहक कप्तान के रूप में मुल्तान में भारतीय पारी की घोषणा तब कर दी थी, जब तेंडुलकर 194 पर बल्लेबाजी कर रहे थे। वह घोषणा द्रविड़ के उस खेल-दर्शन के अनुरूप ही थी, जो टीम के हित को व्यक्तिगत उपलब्धियों से ऊपर रखती है। अपनी इसी दृष्टि के कारण द्रविड़ ने बिना कोई शिकायत किए विकेट कीपर की भूमिका भी निभाई थी, क्योंकि वह टीम के हित में था।
मौजूदा वर्ष द्रविड़ के व्यक्तित्व की दृढ़ता का प्रतिमान सिद्ध हुआ है। उन्हें वनडे टीम से बाहर कर दिया गया था और विश्व कप खेलने के योग्य भी नहीं समझा गया था। काबिल युवा बल्लेबाजों की फौज के सामने द्रविड़ को शायद एक ‘एंटिक आइटम’ माना जा रहा था। हमें बार-बार बताया जा रहा था कि यह टी-20 का दौर है और इसमें भारी बल्लों से छक्के उड़ाने वाले बल्लेबाज ही अपना अस्तित्व कायम रख सकते हैं। द्रविड़ का पसंदीदा क्रिकेटिंग स्ट्रोक है मजबूत फॉरवर्ड डिफेंस, लेकिन कइयों का मानना था कि यह स्ट्रोक केवल कोचिंग मैनुअल के लिए ही ठीक है। लेकिन जब इंग्लैंड के विरुद्ध टेस्ट सीरीज में युवा तुर्क ताश के पत्तों की तरह बिखर रहे थे, तब द्रविड़ के इस फॉरवर्ड डिफेंस ने ही हमारा थोड़ा-बहुत सम्मान बचाया था।


संभव है कि हर चुनौती का सामना करने के बाद द्रविड़ रिटायरमेंट के बारे में विचार करें। बल्लेबाजी की ढेरों उपलब्धियां हासिल करने के बाद शायद अब वे अपने परिवार के साथ समय बिताना चाहेंगे। लेकिन इसकी कम ही संभावना है कि उनके रिटायरमेंट की घोषणा बहुत नाटकीय होगी। नाटकीयता से राहुल द्रविड़ का ज्यादा नाता नहीं है। शायद वे चुपचाप सूर्यास्त की खोह में चले जाएंगे और अपने पीछे अपनी उपलब्धियों की स्मृतियां छोड़ जाएंगे।


सत्य प्रकाश 
e-mail : satyaprakash.ind@gmail.com 

Friday, November 4, 2011

मानव विकास सूचकांक में 12 प्रतिशत तक की गिरावट

मानव विकास रिपोर्ट-2011 ने हमें आगाह किया है कि अगर हमने अपने पर्यावरण एवं समाज में नर-नारी गैर-बराबरी की अनदेखी जारी रखी, तो टिकाऊ, न्यायपूर्ण एवं समतामूलक विकास का सपना हमसे दूर ही बना रहेगा। संयुक्त राष्ट्र की इक्कीसवीं रिपोर्ट में पर्यावरण क्षय के गरीबों पर पड़ने वाले असर पर खास ध्यान दिया गया है। अगर ग्लोबल वॉर्मिग के कारण जलवायु परिवर्तन जारी रहा, तो 2050 तक मानव विकास सूचकांक पर दक्षिण एशिया के देशों की स्थिति में 12 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। वैसे भी श्रीलंका को छोड़कर किसी अन्य दक्षिण एशियाई देश की स्थिति इस सूचकांक पर बेहतर नहीं है। 187 देशों की सूची में भारत 134वें नंबर पर है। धीमी, लेकिन स्थिर गति से प्रगति के बावजूद भारत की हालत अगर इतनी दयनीय है तो उसका बड़ा कारण अपने समाज में मौजूद लैंगिक विषमता है। बच्चे को जन्म देते समय माताओं की मृत्यु, प्रति महिला जन्म दर, 19 वर्ष से कम उम्र में माता बनने की दर, कुल श्रमशक्ति में कामकाजी स्त्रियों के प्रतिशत और राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कसौटियों पर भारत विकसित समाजों की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। यही हाल प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के मामले में है। विविध पहलुओं के आधार पर तैयार गरीबी को मापने की नई कसौटी- मल्टीपल पॉवर्टी इंडेक्स- को इस बार रिपोर्ट में जगह दी गई है और इसके मुताबिक भारत में गरीबों की संख्या 53.7 ठहरती है, जो ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों की तुलना में काफी ज्यादा है। स्पष्टत:, यह रिपोर्ट एक विकसित समाज बनने की भारत की उम्मीदों पर फिलहाल पानी डालने वाली है। मगर यह एक ऐसा आईना है, जो हमें अपनी असली चुनौतियों से रू-ब-रू कराता है। अगर नीति निर्माता इनसे निपटने की कारगर योजनाएं बनाएं, तो आने वाले वर्षो में इस सूचकांक पर, जो आज विकास का अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार्य पैमाना है, भारत संतोषजनक स्थिति पाने में सफल हो सकता है।