Thursday, December 29, 2011

सत्य की खोज


ज्ञान और अनाचार हमारे जीवन में अंधकार की तरह हैं। ये सत्य के प्रकाश से ही दूर होते हैं। जीवन में सत्य आए और हम भीतर से प्रकाशित न हों तो जांच कर लीजिएगा कि जिसे हम सत्य मान रहे हैं वह है भी या नहीं। सत्य के आते ही दो काम होंगे, शरीर से ओज बरसेगा और मन में उथल-पुथल कम होगी। क्योंकि सत्य प्रकाश भी है और शक्ति भी। 
                  जब कभी सत्य से हटेंगे, आप पाएंगे कि दुख आपके आसपास मंडराने लगे हैं। कई लोग यह कहते मिलते हैं कि हमने सत्य की कीमत चुकाई है, सच बोलने पर परेशानी उठानी पड़ती है। यह विचार इसलिए आता है कि सत्य को ठीक से समझा नहीं गया। 
 
सत्य भी एक नियम की तरह है।  हम जीवन जीते-जीते कई बार गलत मार्गो पर चले जाते हैं। गलत गए कि दुख आया, दुख आया कि परमात्मा याद आया। सुख में ईश्वर कम ही याद आता है और जब दुख में उसकी याद आए तो उसकी ओर चलने का सबसे सरल मार्ग है सत्य को पकड़ लेना। जीवन में सत्य आते ही आभास होगा कि हम क्यों गलत चले गए थे ? 
 
सत्य हमें ईश्वर की ओर लौटाता है। सत्य हमें बताता है कि हम किसी नियम से हट गए थे और इसीलिए परेशानी में पड़ गए हैं। जीवन में जब दुख आए तो समझ लीजिए कि कहीं हम सत्य से जरूर दूर हुए हैं। सत्य को केवल क्रिया मानेंगे, आचरण मानेंगे तो कष्ट महसूस होगा, लेकिन जिस दिन सत्य को ईश्वर का रूप मानेंगे, उस दिन तकलीफ का सवाल ही पैदा नहीं होगा। सत्य की खोज परमात्मा की खोज है। 

 
 
 
सत्य   प्रकाश 
हिंदी पत्रकारिता एवं जनसंचार विभाग ,
बिहार विश्वविद्यालय , मुजफ्फरपुर !
09931806532

Wednesday, December 28, 2011

हिंदी साहित्य पर अस्तित्व का खतरा

हमारे भारतीय साहित्य, खासतौर से हिंदी साहित्य पर अस्तित्व का खतरा मंडराना शुरू हो गया है। भाषाओं से ही साहित्य निर्मित होता है और आज हमारी भाषा (हिंदी) ही खतरे में है। अब हिंदी का रचनाकार दूसरी भाषा (इंग्लिश) में जा रहा है। हमारी चीजें हमें स्थानीय भाषा में नहीं मिल रही हैं। आज हिंदुस्तान में विश्वस्तरीय साहित्य पैदा नहीं हो पा रहा है। ऐसा होने की वजह स्पष्ट है। 

हमारी बड़ी-बड़ी प्रतिभाएं भारतीय साहित्य में यथेष्ट योगदान नहीं दे रही हैं। हमारी नई पीढ़ी के लोग अगर हिंदी में लिखेंगे ही नहीं, तो आगे चल के वह नष्ट होगी ही। एक समय था जब भाषा का उपयोग करने वाले, भाषा विज्ञानी ही उसका निर्माण करते थे, लेकिन अब बाजार, सरकार निर्णायक बन बैठी है। जो सत्ता कभी विद्वानों में, जनता में निहित थी, वह अब बाजार में चली गई है। जाहिर है ऐसे में भाषा का स्वरूप बिगड़ेगा, वह नष्ट ही होगा। 

                                मैं हिंदी में अन्य भाषाओं के शब्द लेने का भी विरोधी नहीं हूं। यह तो होता ही है। चिंता इस बात की होनी चाहिए कि भाषा का निर्माण भाषा बनाने वाले करें न कि और दूसरे पूंजीवादी सत्ता केंद्र। वर्तमान में बाजारवाद हर क्षेत्र को प्रभावित कर रहा है, शायद इसीलिए भारतीय साहित्य आज अपने समय की आवाज नहीं बन पा रहा है। 
आज के साहित्य में मनुष्य की मूलभूत चिंताओं को नजरअंदाज कर वैश्विक चमक-दमक ज्यादा व्यक्त की जा रही है। आज हमारा देश गरीबी की उस सीमा पर है जिस पर वह कभी भी नहीं रहा। कृषि प्रधान देश में में किसान का आत्महत्या करना इसका ज्वलंत उदाहरण है। बावजूद इसके इस तरह के मसलों पर साहित्य की प्रतिक्रिया बहुत कम है। 


आज के साहित्यकारों की संवेदना कुंठित हो गई लगती है। वह उस परिमाण में व्यक्त नहीं हो रही, जिस परिमाण में मनुष्य पीड़ित है। साहित्य की भूमिका तो शुरू से प्रतिपक्ष की रही है। वह हमेशा से धन, राजनीति या शस्त्र जैसी विभिन्न सत्ताओं के प्रतिपक्ष में खड़ा होता रहा है। 
वह जनता के साथ, उसके प्रश्नों को,उसकी चिंताओं को व्यक्त करता रहा है। वह युग को मोड़ने की कोशिश करता है, समाज को एक दिशा देने का प्रयत्न करता है। लेकिन दुर्भाग्य से आज वह उस ओहदे पर ही नहीं रहा, कि दुनिया को, समाज को प्रभावित कर सके।








सत्य प्रकाश 
प्रोफेसर कॉलोनी,
बिहार विश्वविद्यालय परिसर ,
मुजफ्फरपुर .
मो. - 9931806532

Tuesday, December 27, 2011

सीबीआई की स्वतंत्रता


सीबीआई की स्थापना १९६८ में  इस उद्देश्य से नहीं की गयी थी की यह सरकार के हाथों की कठपुतली मात्र बनकर रहे बल्कि इस उद्देश्य से की गयी थी की यह भ्रष्टाचारमुक्त और अपराधमुक्त भारत के निर्माण में एक प्रभावकारी हथियार सिद्ध हो . उस समय  भारत सरकार ने " दिल्ली विशेष पुलिस निर्माण एक्ट " पास किया था और इस एक्ट के जरिये जो पुलिस बनी थी उसका अधिकार क्षेत्र मुख्यतः केन्द्रशासित प्रदेशों में ही था लेकिन दूसरे राज्यों में भी किसी विशेष अपराध होने पर उक्त राज्य की सहमती से कार्य कर सकती थी . सीबीआई  को लोकपाल के दायरे में लाने और न लाने पर बहस जारी है पर इन सबके बीच केंद्र सरकार ने लोकपाल बिल लोकसभा में पारित करा लिया . भ्रष्टाचार और अपराध की जांच के लिए बनी सीबीआई सालों से इस कलंक को झेल रही है की वह भ्रष्टाचारियों , दागी राजनेताओं और अपराधियों को बचने मात्र की संस्था बनकर रह गयी है .

               कहने को तो सीबीआई एक स्वायत्त संस्था है परन्तु हकीकत इसके ठीक उलट है . विभिन्न मौकों पर सत्तारूढ़ दल के द्वारा इसका गलत इस्तेमाल होता रहा है आंकड़े इसकी गवाही देते हैं दिल्ली में ही सीबीआई के लगभग १,३८९ मामले न्यायालयों में लंबित हैं जिनमे से विशेष न्यायाधीशों की ६ अदालतों में ९२७ मामले लंबित हैं . इनमे से १७१ मामले आठ वर्षों से भी अधिक समय से चल रहे हैं. साल २००६ के आखिर तक ८,२९७ सीबीआई मामले जांच पूरी होने के बाद मुक़दमे का इंतज़ार कर रहे थे . २००५ में लंबित मुकदमो की संख्या ६,८९८ थी और पिछले १० सालो से ज्यादा समय से २,२७६ से अधिक मामले विभिन्न अदालतों में विचाराधीन हैं . इन आंकड़ो को देखने के बाद सीबीआई की अपराध के खात्मे के  प्रति उदासीनता साफ़ झलकती है .
                ऐसे कई उदाहरण हैं जब राजनीतिक फायदों के लिए सीबीआई का बेजा इस्तेमाल किया गया और अपने हितों को साधने के लिए उसे पंगु बना कर रखा गया ताकि सत्ता की बागडोर हाथों से न फिसल जाये . जगदीश टाइटलर , बोफोर्स घोटाला , गोधरा कांड , आदर्श सोसायटी , टुजी स्पेक्ट्रुम घोटाला जैसे  मामले इसके ज्वलंत उदाहरण हैं . सीबीआई सरकार के अन्दर है और सरकार के अन्दर होते हुए वो उसके खिलाफ  जांच नहीं कर सकती जबकि सरकार के लगभग सारे के सारे मंत्री और मुलाजिम भ्रष्टाचार में कही न कही लिप्त रहते है , ऐसे में सीबीआई से निष्पक्ष जांच की उम्मीद करना बेमानी होगी. यह भी एक कठोर सच्चाई है की कोई भी सरकार , वो चाहे किसी भी राजनीतिक दल की हो , स्वतंत्र जांच संस्था नहीं चाहती जो उसके कहे अनुसार चलने को तैयार नहीं हो .
              जहा तक सीबीआई की स्वायत्ता का सवाल है तो सीबीआई की स्वायत्ता तो है ही नहीं अभी उसे स्वायत्ता देनी बाकि है .  जरुरत इस बात की है की सीबीआई को स्वतंत्र रखा जाये,  न ही सरकार के अधीन और न लोकपाल में इसका विलय किया जाये ताकि सीबीआई फिर से अपनी खोयी प्रतिष्ठा हासिल कर सके . अब देखना ये है की क्या वर्तमान सरकार सीबीआई को स्वतंत्रता प्रदान करती है या उसे पंगु बनाकर रखती है .


सत्य प्रकाश 
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार विभाग,
बि० आर० ए० बिहार विश्वविद्यालय ,
मुजफ्फरपुर.
09931806532

Sunday, December 4, 2011

'स्वामी विवेकानंद' के अनुसार " हम ऐसी शिक्षा चाहते हैं जो चरित्र निर्माण कर सके , दिमागी ताकत को बढा सके, वैचारिक सकती को विस्तार दे सके और कोई भी अपने पैरों पर खड़ा हो सके | " 
                      पर शायद आज की युवा पीढ़ी इससे इत्तेफाक नहीं रखती तभी तो उसके लिए शिक्षा के मायने बदल गए हैं | पढ़कर डिग्री लेना उनकी फितरत नहीं वो तो बस हंगामा खड़ा कर , कॉलेज और विश्वविद्यालय को ठ़प कर जबरन अपना रिजल्ट पाना चाहते हैं | बि० आर० ए० बिहार विश्वविद्यालय मुजफ्फरपुर में छात्र संगठनों की आड़ में कुछ लोग अपने मतलब की रोटी सकते हैं और छात्रों को गुमराह करते हैं | उनके कृत्यों से समूचे शिक्षा जगत को शर्मसार होना पड़ता है | आये दिन गुरु-शिष्य परंपरा के अटूट और पवित्र रिश्ते को धता बताते हुए उनके साथ बदसलूकी और छात्रों के साथ रैगिंग की घटना तो जैसे आम बात हो चली है | 
                            एक वक्त था जब लंगट सिंह कॉलेज बिहार का गौरव हुआ करता था जहा से हर साल आई० ए ०एस० और आई० पी० एस० कि फ़ौज निकलती थी परन्तु आज कि स्थिति वैसी नहीं रही | आज भी यह बिहार नहीं वरन पूरे देश के लिए गौरव का प्रतीक है जहाँ देश के प्रथम राष्ट्रपति देशरत्न राजेंद्र प्रसाद, आचार्य जे० बी ० कृपलानी एवं मलकानी तथा राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जैसे शिक्षक अपनी सेवाएं दे चुके हैं परन्तु वक़्त बीतने के साथ शिक्षा का ध्येय बदल गया है , अब तो इन महान विभूतियों के आदर्श शायद युवा वर्ग को ना तो प्रेरित करते हैं और ना ही कोई उनके पदचिन्हों पर चलने कि बात करता है जो सचमुच हमारी संस्कृति के खिलाफ है | 
                            ये सच है कि छात्र शक्ति में बड़ी ताकत होती है जो किसी भी सत्ता को उखाड़ फेकने का माद्दा रखती है, जे० पी० आन्दोलन इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है जिसके फलस्वरूप  बिहार में तब के समय में कई छात्र नेता उभर कर सामने आये जिनमे बिहार के वर्तमान मुख्यमंत्री नीतीश कुमार , लालू प्रसाद यादव , शरद यादव और रामविलास पासवान का नाम लिया जा सकता है जो ना सिर्फ राजनीति के क्षितिज पर छा गए बल्कि अपना अलग एक मुकाम हासिल किया | परन्तु आज का युवा वर्ग लक्ष्य से भटक गया सा लगता है जो किसी छात्र हित कि बात नहीं करता अपितु सस्ती लोकप्रियता पाने कि ललक में युवा वर्ग किसी भी हद तक चला जाता है | अखबारों में अपनी तस्वीर छपवाने के लिए वो कॉलेज और विश्वविद्यालय में बंद का आह्वान कर तोर -फोड़ करता है जो कि निन्दनिये है | शायद उसे इस बात का इल्म नहीं कि इस वजह से हजारों छात्रों का नुक्सान ही होता है फायदा कुछ नहीं |
                            यहाँ तक कि कुछ छुटभैये नेता छात्रो के हित कि बात करते दिखाई तो नहीं देते उलटे समय-समय पर उनकी जेबे जरुर ढीली करते हैं, नामांकन से लेकर डीग्री निकालने तक के नाम पर उनसे पैसा ऐंठते हैं | दूर - दराज से आने वाले छात्र विश्वविद्यालय का चक्कर लगाने के बजाय तथाकथित नेताओं को कमीशन देकर काम करवाना ज्यादा मुनासिब समझते हैं | क्या इन छात्र नेताओं में से फिर कोई जे ० पी ० निकलेगा ? क्या छात्र इन सबके खिलाफ कभी गोलबंद हो पाएंगे ? आखिर कब तक ? 
                             ऐसे ना जाने कितने ही सवाल हमारे दिल और दिमाग को झकझोरते हैं जिनका उत्तर ढूंढते - ढूंढते शायद हम पुनः उसी जगह पर आकर ठिठक जाते हैं और सोचते हैं कि आखिर कौन आगे आने कि जहमत उठाएगा ? 



सत्य  प्रकाश 
हिंदी पत्रकारिता और जनसंचार विभाग ,
बि० आर० ए० बिहार विश्वविद्यालय ,
मुजफ्फरपुर | 842001