मानव विकास रिपोर्ट-2011 ने हमें आगाह किया है कि अगर हमने अपने पर्यावरण एवं समाज में नर-नारी गैर-बराबरी की अनदेखी जारी रखी, तो टिकाऊ, न्यायपूर्ण एवं समतामूलक विकास का सपना हमसे दूर ही बना रहेगा। संयुक्त राष्ट्र की इक्कीसवीं रिपोर्ट में पर्यावरण क्षय के गरीबों पर पड़ने वाले असर पर खास ध्यान दिया गया है। अगर ग्लोबल वॉर्मिग के कारण जलवायु परिवर्तन जारी रहा, तो 2050 तक मानव विकास सूचकांक पर दक्षिण एशिया के देशों की स्थिति में 12 प्रतिशत तक की गिरावट आ सकती है। वैसे भी श्रीलंका को छोड़कर किसी अन्य दक्षिण एशियाई देश की स्थिति इस सूचकांक पर बेहतर नहीं है। 187 देशों की सूची में भारत 134वें नंबर पर है। धीमी, लेकिन स्थिर गति से प्रगति के बावजूद भारत की हालत अगर इतनी दयनीय है तो उसका बड़ा कारण अपने समाज में मौजूद लैंगिक विषमता है। बच्चे को जन्म देते समय माताओं की मृत्यु, प्रति महिला जन्म दर, 19 वर्ष से कम उम्र में माता बनने की दर, कुल श्रमशक्ति में कामकाजी स्त्रियों के प्रतिशत और राजनीति में महिलाओं के प्रतिनिधित्व की कसौटियों पर भारत विकसित समाजों की तुलना में बहुत पिछड़ा हुआ है। यही हाल प्राथमिक और माध्यमिक शिक्षा के मामले में है। विविध पहलुओं के आधार पर तैयार गरीबी को मापने की नई कसौटी- मल्टीपल पॉवर्टी इंडेक्स- को इस बार रिपोर्ट में जगह दी गई है और इसके मुताबिक भारत में गरीबों की संख्या 53.7 ठहरती है, जो ज्यादातर विकसित एवं विकासशील देशों की तुलना में काफी ज्यादा है। स्पष्टत:, यह रिपोर्ट एक विकसित समाज बनने की भारत की उम्मीदों पर फिलहाल पानी डालने वाली है। मगर यह एक ऐसा आईना है, जो हमें अपनी असली चुनौतियों से रू-ब-रू कराता है। अगर नीति निर्माता इनसे निपटने की कारगर योजनाएं बनाएं, तो आने वाले वर्षो में इस सूचकांक पर, जो आज विकास का अपेक्षाकृत अधिक स्वीकार्य पैमाना है, भारत संतोषजनक स्थिति पाने में सफल हो सकता है।
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